त्रिवेणी



आ मदालसा बुआ और पूज्य भाया के मिमित्त से मेरा वर्धा प्रवास और साथी संस्थाओं से संपर्क सं १९९५ से जारी है।  उत्तर बुनियादी के अभ्यास , शिक्षा शोध और जल, जंगल जमीन विषयक अध्ययन के निमित्त से भी संस्थाओं और कुछ सरकारी संघों के साथ रिश्ते बने।  वर्धा प्रवास उन सभी संबंधों का केंद्रीय पक्ष है। 

पूज्य भाया और मदालसा बुआ के साथ जुड़े रहने का एक बड़ा सन्दर्भ उस त्रिवेणी से है जो पूज्य जमनालालजी, पूज्य बापू और आचार्य विनोबा के कारण बना।  श्री जमनालालजी पर यह जिम्मेदारी दी गई थी कि क्रांतिकारी परिवारों को मदद पहुंचाएं और उनके बहु बेटियों को संरक्षण दें; जो कि उनहोंने बखूबी निभाया।  उसी निमित्त से वो कई बंगाली परिवार में भी आते रहे और प्रत्यक्ष रूप से मदद भी पहुंचाया।  बचपन से हमें यही सिखाया गया कि पूज्य भाया और मदालसा बुआ अपने हैं; उनसे हमारा गहरा रिश्ता है। गिने चुने साथी संस्था को तकनीकी मदद पहुंचाने के क्रम में अन्य कई संस्था से भी सम्बन्ध जुड़ गया।  वह सिलसिला आज भी जारी है।  मेरी ओर से किसी भी संस्था से समर्थन या सहयोग पहुंचाने का क्रम बंद नहीं किया गया।  जहां दिशा और पैमाने बदल जाते हैं वहाँ कुछ हद तक दूरियां बन जातीं हैं।   

सहज रूप से मैं आचार्य विनोबा को आधुनिक संत मानता हूँ और यह भी महसूस करता हूँ कि उनके बताये लोक नीति और लोक व्यवस्था के आधार पर किसी भी संस्था संघ को सक्षम बनाया जा सकता; वह फिर अपना देश भारत या फिर विश्व जगत ही क्यों न हो।  अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि जनता जनार्दन का सबसे बड़ा हिस्सा ऐसा है जो “जय श्री राम” या “जय रावण” खुलकर नहीं बोलता; वो सिर्फ “जय हो, जय हो” बोलते हैं और जिस तरफ पल्ला झुका उस तरफ झुक जाते हैं।   कभी सिकंदर विश्व जय करने निकले थे और भारत में जब उनका अभियान चल रहा था तब कुछ ऐसे संत मिले जो अपने लिए डेढ़ गज की जमीन नाप रहे थे।  उनसे इसका कारण पुछा गया तो उनहोंने कहा कि सिर्फ उसी जमीन से उनका वास्ता होनेवाला है; वो भी कुछ पल के लिए , उसके बाद वो भी मिट जाएगा।  उनमे से एक संत ने सिकंदर को कहा, "राज्य जय करके तुम्हारा सिंहासन पर बैठना संभव ही नहीं ही पायेगा, उसके पहले तुम्हें तुम्हारा शरीर त्यागना होगा और तुम्हारा भी उस डेढ़ गज जमीन से ही वास्ता होनेवाला है। "

सिकंदर ने फिर अपने साथियों से कहा, "इस प्रकार के संतों को न तो प्रतिष्ठा कि लालसा है और न ही धन और भूमि का प्रयोजन, उन्हें सिर्फ लोक हितार्थ काम करते रहना है।  अगर कोई इन महात्माओं का विश्वास जीत लिया तो वह भारत भूमि पर राज करेगा। "

भारत के इतिहास में शायद ही ऐसा कोई पल आया हो जब उसके शाशकों ने किसी पर हमले किये हों, या फिर किसी देश को लूटा हो ; अत्याचार सहने और मुसीबतें झेलने की परमार सी चली आ रही है।  गुलामी के क्रम में एक बड़ा मोड़ तब आ गया जब बम्बई के एक अंग्रेज अफसर एल्फिंस्टन ने अपने सम्राट से पत्राचार करते हुए भारत को हमेशा के लिए गुलाम बनाने का मसौदा लिख डाला, "संस्कृति किसी भी सम्प्रदाय की रीढ़ की हड्डी होती है।  अगर हम उस सम्प्रदाय को गुलाम बनाना चाहते हों टी हमें उस हड्डी में विकार लाना होगा ।  अंग्रेजी सिखा देने से भारत के सम्प्रदाय में विकार आ जाएगा और ये गुलामी करने के आदि हो जाएंगे।  इसके लिए उन्हें मूल्यबोध , तहजीब और विरासत से अलग हटकर सिर्फ भाषा, गणित और कुछ वयवहार सिखाना होगा।  वो अपनी संस्कृति से कट जाएंगे और अंग्रेजी संस्कृति से जुड़ जाएंगे।  फिर यह माने नहीं रखता कि हम भारत में हैं या नहीं; भारत के लोग सदियों के लिए अंग्रेजियत की गुलामी करते रहेंगे । "

 इस बात का संकेत भारत के मनीषियों को मिल चूका था।  इसे रोकने के लिए सबसे ठोस कदम उस त्रिवेणी ने उठाया जिसका जिक्र पहले किया जा चूका है।  नयी तालीम को अमली जामा पहनाने का काम और रचना कार्यक्रम में बढ़ चढ़कर लग जाने का कार्यक्रम उसी दिशा में किया जानेवाला पहल था।  स्वतंत्र भारत में फिर संस्था संघ के पैमाने और दिशा बदलते गए और उस त्रिवेणी से निकले स्वराज और स्वावलम्बन कि धारा  को कहीं खो जाते हुए देखा गया ।  लोक सेवक और उन सेवकों के संघ की  बात तो अछूती रही; कुछ और ही सेवक संघ बनाते रहे और जनता जनार्दन के अरमानों को बारी बारी से कुचला जाने लगा।

आचार्य विनोबा यह भी समझ चुके थे कि जन, जर और जमीन को  लेकर संघर्ष की स्थिति बन सकती है।  इसलिए उनहोंने सभी कार्यकर्ताओं को भूदान यज्ञ में लगाया और खुद भी कूद पड़े।  आज भी हमें इतना तो विश्वास है ही कि किसी भी प्रकार की उन्मत्तता से जनता जनार्दन को मुक्त करने का काम उस त्रिवेणी के कुंड  से ही किया जा सकेगा।  इतना जरूर है कि सूचना तंत्र के युग में उस तत्व की  गहराई में उतरकर हमें संघबद्ध होकर काम करना होगा।  संघबद्ध होने का पहला सिद्धांत यही है कि हम सभी भेद बुद्धि  से ऊपर उठकर लामबंद हो  सकें और समस्याओं से उभरने का प्रयास करें।

कई बार ऐसा लगता था कि मदालसा बुआ और भाया के गुजर जाने के साथ साथ मेरा शायद वर्धा प्रवास छूटेगा; पर प्रेम सम्बन्ध इतना गहरा  था कि उस प्रेम सम्बन्ध को शायद इस जीवन काल में , या फिर आनेवाले कालावधि में किसी समय,  में खंडित नहीं किया जा सकेगा।  विश्वास और विश्वसनीयता के यही पैमाने हैं जिसके आधार पर हम संघबद्ध होने का प्रयास करते हैं; फिर भौतिक दूरी बेमानी हो जाती है।  बाबा विनोबा में एक हुनर तो था कि वो हर व्यक्ति से काम ले लेते थे; उनहोंने डाकुओं से भी हथियार डलवाया और उन्हें समाज कि मुख्य धारा में मिलवाया; श्री जमनालालजी उस सरस्वती धारा कि भाँति बिना  थके कार्य करते रहे।   

क्रान्ति वीरों के परिवार के साथ एक और परेशानी ऐसी थी कि उनके बच्चों को स्कूल में दाखिला नहीं मिल पाता था, पड़ोस में अलग थलग कर दिए जाते थे, यहां तक कि ृ रिश्तेदाहार भी दूर भागते थे। ।  उन बच्चों को उठाकर लाना, बुनियादी शिक्षा से शिक्षित करना, होनहार बनाना, यह भी उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी रही।  इन यादों को ताजा होते हुए तब महसूस करता हूँ जब ब्रह्म विद्या मंदिर में दाखिल हो जाता हूँ और वहाँ बसे वरिष्ठ जनों से बातचीत करने लग जाता हूँ।  मेरे लिए यह गर्व का ही विषय है कि उस तत्व सम्मेलन के वातावरण में मैं पला बढ़ा और वही संस्कृति मुझे विरासत में मिल गई। देश में उन्मत्तता और माहौल का बिगड़ाव देखने से पीड़ा होती है और अपने शोधार्थी स्वभाव के कारण विविध प्रकार से समाधान सूत्र निकालने के लिए मन बेचैन हो उठता है।  कुछ संस्था संघ से मुझे कुछ उम्मीदें तो हैं; पर उनकी मर्यादा और सीमा को समझते हुए मैं इसे जाहिर नहीं कर सकता।  कहते हैं अर्थ ही अनर्थ का मूल है , इस बात को सत्यापित करते हुए संस्था संघों में भी भटकाव देखा जा रहा है; उनके कई इकाइयों के पैमाने और दिशा बदल भी रही है।  इन सबको जोड़ने का विज्ञान भी तत्व कि गहराई में ही निहित है।  गीता में भी श्री कृष्ण आखिर में अर्जुन से कहते हैं, " यज्ञ, दान और तप त्यागने योग्य नहीं हैं; इसका अनुपालन तो सबको करना चाहिए ।"

दूसरे क्या करें क्या न करें यह देखना भी अनुचित होगा, बल्कि यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे मन  में जो तत्व और विचार पनपते हों उसके विरोध में कोई कार्य करके हम कमसे कम अपने से छल न करें। इस वक्त इतना तो जरूर कहा जा सकेगा कि उस त्रिवेणी के कुंड में मैं बसेरा बना चूका हूँ; आगे क्या पड़ाव आनेवाला है इसका भी मुझे ज्ञान नहीं।  अपनी अनुसन्धित्सा बनी रहे यही अभिलाषा है।

 

चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता

अरविंद नगर, बांकुरा (प.  बंगाल) ७२२१०१

[सन्दर्भ: (आ.  भैया) श्री गौतम बजाज , ब्रह्म विद्या मंदिर पवनार,  से बातचीत ]

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